Saturday, August 1, 2009

ऐ मेरे दोस्त....

दुआ क्या थी, जहन में ये तो याद नहीं,
बस दो हथेलियां थीं जुड़ी आपस में...
जिनमें से एक मेरी थी और एक तुम्हारी ...।

जब आपकी हथेली के साथ किसी और की हथेली जुड़ी हो तो स्वत ही इतना कुछ मिल जाता है कि उस सुख, उस अनुभूति के समय याद ही नहीं आता कि दुआ क्या थी? हो भी क्या सकती है? इसके सिवा कि ये साथ हमेशा बना रहे। ये हथेलियां कभी अलग न हों। इंसान जब जन्म लेता है तब उसे स्वयं नहीं पता होता कि वह किस जाति, धर्म, कुल, सप्रदाय, या प्रांत का हिस्सा बनने जा रहा है। जन्म के साथ ही वह मां की कोख से अपने साथ लाता है 'रिश्ते' खून के रिश्तें जिन्हें वह चाहकर भी बदल नहीं सकता, बना या मिटा नहीं पाता। ये रिश्ते बंधे होते हैं मर्यादाओं, परम्पराओं और परिस्थितियों की जंजीरों से। शायद यही कारण है कि लाख अच्छा वातावरण और परिवेश होने के बावजूद थोड़ा-सा भी स्वविवेक जागते ही हर व्यक्ति एक 'साथ' की आकांक्षा में एक नए और अनजाने सफर पर निकल पड़ता है। हर इंसान की सहज प्रवृçत्त होती है मुक्ति की चाह, अभिव्यक्ति की इच्छा और यही से प्रारम्भ होता है एक अच्छे साथी की खोज का सिलसिला। हम सभी अपने क्वस्वं को अभिव्यक्त करना चाहते हैं। इसीलिए हमें जरूरत होती है एक ऐसे व्यçक्त की जो पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ हमारी अनुभूतियांे का साक्षी बने, जो पूरी करुणा के साथ हमारी पीड़ा व दुख के क्षणों को हमारे साथ भोगे, जिनका स्नेह ऐसा हो कि जब वह बरसे तो मन की धरती से मुस्कुराहटों की कोपलें फूट पडे़ और जो हमारी भूलों पर आवरण न डालते हुए हमें आईना दिखाने का काम करे। एक ऐसा साथ जो पूजा की तरह पवित्र और निर्विकार हो। एक सच्चा मित्र आपके अभावों की पूर्ति है, यकीनन इस द्वंद्व और उलझनों से भरे जीवन में कुछ पल शांति और सुकून के मिलते हैं तो वह आपके दोस्त के साथ ही। आज के भौतिकवादी, उपभोक्तावादी युग में हम अपना क्वस्वं पता नहीं किस कोने में दबा, छुपा कर इस मशीनी दौर का एक पुर्जा मात्र बने हुए हैं। गजल की एक पंक्ति है कि 'हम दोस्ती, एहसान, वफा भूल गए हैं, जिंदा तो है, जीने की अदा भूल गए हैं...। हो सकता है कुछ लोग इससे सहमत न हों मगर वास्तविकता यह है कि उनकी मित्रता की अवधारणा और वास्तविकता में बुनियादी फर्क है। उनकी दोस्ती की नींव जरूरतों की पूर्ति पर टिकी होती है। मगर सच्ची दोस्ती दुनिया के सारे रिश्ते-नातों से ऊपर है। यही वजह है कि इसमें उम्र, धर्म, जाति जैसे क्षेपक कभी नहीं लग पाते। यह आस्था और विश्वास का वह अंकुर होती है जो एक बार Nदय में प्रस्फुटित हुआ तो ताउम्र जीवन को सुरभित और सुवासित करता है। इसकी महक आपके व्यक्तित्व और रूह में रच-बस जाती है, इसलिए सामने न होने पर भी आपके मित्र की मित्रता सदैव आपके साथ चलती है। मित्रता की एक शर्त है 'आपसी समझ' चाहे आपके चारों ओर दोस्तों का सैलाब उमड़ रहा हो, मगर उनमें से कोई आपको समझ नहीं पाए, आपके वास्तविक रूप में जो आज हैं उस रूप में स्वीकार न कर पाए, आपकी कमजोरियों के साथ। तो ऐसे मित्रों की बजाय कोई एक मित्र जो पूरी शिद्दत के साथ आपको समझे, स्वीकारे वह ज्यादा श्रेयस्कर है। ऐसा ही दोस्त आपको प्रेरणा तथा संबल दे सकता है। हां में हां मिलाने वाला आपका मित्र नहीं होगा। हकीकत अक्सर कड़वी होती है मगर आपका सच्चा दोस्त वही है जो आपके गलत होने पर डॉटकर यह कह सके कि यह सही नहीं है। मित्रता का शिल्प विश्वास से बना होता है। और यह विश्वास इतना कमजोर कतई नहीं होता कि छोटे-छोटे झटके उसे बिखेर दें। सही मित्रता जीवन का प्रकाश पुंज होती है, साथ न रहने पर भी उसकी यादें आपकी राहों को रोशन करती हैं। इसलिए दोस्ती के इस मौके पर यही कामना करते हैं कि दुनिया के तमाम दोस्तों की हथेलियां जुड़ी रहें और जहां मित्रता का सूर्य प्रकाशवान हो, ईश्वर करे वहां हम भी हों ।

2 comments:

  1. 'हम दोस्ती, एहसान, वफा भूल गए हैं, जिंदा तो है, जीने की अदा भूल गए हैं...।

    ye sach hai ki kahi hum achche dost ko saath rakhne ki soch se door hote ja rahe hai..is samajh ko siddat ke sath pesh karne ke liye badhai

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