Saturday, August 1, 2009

ऐ मेरे दोस्त....

दुआ क्या थी, जहन में ये तो याद नहीं,
बस दो हथेलियां थीं जुड़ी आपस में...
जिनमें से एक मेरी थी और एक तुम्हारी ...।

जब आपकी हथेली के साथ किसी और की हथेली जुड़ी हो तो स्वत ही इतना कुछ मिल जाता है कि उस सुख, उस अनुभूति के समय याद ही नहीं आता कि दुआ क्या थी? हो भी क्या सकती है? इसके सिवा कि ये साथ हमेशा बना रहे। ये हथेलियां कभी अलग न हों। इंसान जब जन्म लेता है तब उसे स्वयं नहीं पता होता कि वह किस जाति, धर्म, कुल, सप्रदाय, या प्रांत का हिस्सा बनने जा रहा है। जन्म के साथ ही वह मां की कोख से अपने साथ लाता है 'रिश्ते' खून के रिश्तें जिन्हें वह चाहकर भी बदल नहीं सकता, बना या मिटा नहीं पाता। ये रिश्ते बंधे होते हैं मर्यादाओं, परम्पराओं और परिस्थितियों की जंजीरों से। शायद यही कारण है कि लाख अच्छा वातावरण और परिवेश होने के बावजूद थोड़ा-सा भी स्वविवेक जागते ही हर व्यक्ति एक 'साथ' की आकांक्षा में एक नए और अनजाने सफर पर निकल पड़ता है। हर इंसान की सहज प्रवृçत्त होती है मुक्ति की चाह, अभिव्यक्ति की इच्छा और यही से प्रारम्भ होता है एक अच्छे साथी की खोज का सिलसिला। हम सभी अपने क्वस्वं को अभिव्यक्त करना चाहते हैं। इसीलिए हमें जरूरत होती है एक ऐसे व्यçक्त की जो पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ हमारी अनुभूतियांे का साक्षी बने, जो पूरी करुणा के साथ हमारी पीड़ा व दुख के क्षणों को हमारे साथ भोगे, जिनका स्नेह ऐसा हो कि जब वह बरसे तो मन की धरती से मुस्कुराहटों की कोपलें फूट पडे़ और जो हमारी भूलों पर आवरण न डालते हुए हमें आईना दिखाने का काम करे। एक ऐसा साथ जो पूजा की तरह पवित्र और निर्विकार हो। एक सच्चा मित्र आपके अभावों की पूर्ति है, यकीनन इस द्वंद्व और उलझनों से भरे जीवन में कुछ पल शांति और सुकून के मिलते हैं तो वह आपके दोस्त के साथ ही। आज के भौतिकवादी, उपभोक्तावादी युग में हम अपना क्वस्वं पता नहीं किस कोने में दबा, छुपा कर इस मशीनी दौर का एक पुर्जा मात्र बने हुए हैं। गजल की एक पंक्ति है कि 'हम दोस्ती, एहसान, वफा भूल गए हैं, जिंदा तो है, जीने की अदा भूल गए हैं...। हो सकता है कुछ लोग इससे सहमत न हों मगर वास्तविकता यह है कि उनकी मित्रता की अवधारणा और वास्तविकता में बुनियादी फर्क है। उनकी दोस्ती की नींव जरूरतों की पूर्ति पर टिकी होती है। मगर सच्ची दोस्ती दुनिया के सारे रिश्ते-नातों से ऊपर है। यही वजह है कि इसमें उम्र, धर्म, जाति जैसे क्षेपक कभी नहीं लग पाते। यह आस्था और विश्वास का वह अंकुर होती है जो एक बार Nदय में प्रस्फुटित हुआ तो ताउम्र जीवन को सुरभित और सुवासित करता है। इसकी महक आपके व्यक्तित्व और रूह में रच-बस जाती है, इसलिए सामने न होने पर भी आपके मित्र की मित्रता सदैव आपके साथ चलती है। मित्रता की एक शर्त है 'आपसी समझ' चाहे आपके चारों ओर दोस्तों का सैलाब उमड़ रहा हो, मगर उनमें से कोई आपको समझ नहीं पाए, आपके वास्तविक रूप में जो आज हैं उस रूप में स्वीकार न कर पाए, आपकी कमजोरियों के साथ। तो ऐसे मित्रों की बजाय कोई एक मित्र जो पूरी शिद्दत के साथ आपको समझे, स्वीकारे वह ज्यादा श्रेयस्कर है। ऐसा ही दोस्त आपको प्रेरणा तथा संबल दे सकता है। हां में हां मिलाने वाला आपका मित्र नहीं होगा। हकीकत अक्सर कड़वी होती है मगर आपका सच्चा दोस्त वही है जो आपके गलत होने पर डॉटकर यह कह सके कि यह सही नहीं है। मित्रता का शिल्प विश्वास से बना होता है। और यह विश्वास इतना कमजोर कतई नहीं होता कि छोटे-छोटे झटके उसे बिखेर दें। सही मित्रता जीवन का प्रकाश पुंज होती है, साथ न रहने पर भी उसकी यादें आपकी राहों को रोशन करती हैं। इसलिए दोस्ती के इस मौके पर यही कामना करते हैं कि दुनिया के तमाम दोस्तों की हथेलियां जुड़ी रहें और जहां मित्रता का सूर्य प्रकाशवान हो, ईश्वर करे वहां हम भी हों ।

Wednesday, May 20, 2009

भरतपुर


भरतपुर राजस्थान का ही नहीं बल्कि देश-विदेश में भी अपनी अजेय वीरता के लिए जाने जाना वाला शहर है। जो कि जिला मुख्यालय होने के साथ संभाग भी है। यह नामकरण राम के भाई भरत के नाम पर किया गया था। लक्ष्मण इस राज्य परिवार के कुलदेव माने गए हैं। इसीलिए यहां पर लक्ष्मण जी का विशाल मंदिर है। इसके पूर्व यह जगह सोगडिया जाट सरदार रुस्तम के अधिकार में थी जिसको महाराजा सूरज मल ने जीतकर 1733 में भरतपुर नगर की नींव डाली। भरतपुर नाम से यह एक स्वतंत्र राज्य भी था। महाराजा सूरलमल के समय भरतपुर राज्य की सीमा विस्तृत भू-भाग पर फैली हुई थीं। भरतपुर को लोहागढ़ के नाम से भी जाना है। अठारहवीं सदी के आरंभ में बनी यहां लोहे की भीमकाय इमारत है। जो अपनी अजय मोर्चाबंदी के कारण अंग्रेजों के अनेक हमलों के बावजूद बची रही। यही एक ऐसा राज्य था जिसको अंग्रेज नहीं जीत पाए थे। इसी लिए भरतपुर अपनी अजेय और वीरता के लिए प्रसिद्ध है। इस दुर्ग की कल्पना व रुपरेखा भरतपुर के संस्थापक महाराजा सूरजमल द्वारा निधाüरित की गई थी। इस दुर्ग में तीन महल हैं। किशोरी महल, महल खास, कोठी खास। यहां पर राजकीय संग्रहालय भी स्थित है। यह शहर कई प्राचीन दुर्गों एवं महलों के लिए भी प्रसिद्ध है। लेकिन एक और चीज इसकी प्रसिद्धि में चार चांद लगाती है वह है भरतपुर का सबसे बड़ा पक्षी अभयारण्य जो 1964 में अभयारण्य और 1982 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया। यह 29 वर्ग किलोमीटर में फैला पसरा है। घना पक्षी विहार केवलादेव एशिया में पक्षियों के समूह प्रजातियों वाला सर्वश्रेष्ठ उद्यान है। यह पक्षी प्रेमियों के लिए किसी स्वर्ग से कम नहीं है।

Saturday, April 25, 2009

पगलाए से वो जाने पहचाने लोग

प्रत्येक व्यक्ति के पास बुद्धि है जिसे वह विभिन्न कार्यों में अपनी दक्षता प्रदर्शित करने के लिए काम में लेता है। लेकिन कुछ लोग सामान्य लोगों से हटकर कुछ ऐसे अजीबो-गरीब कारनामे करते हैं कि वे सनकी या पागल से नजर आते हैं। ऐसी हरकतों एवं सनकों के शिकार राजा और शासकों के साथ प्रतिçष्ठत एवं प्रतिभावान लोग भी हैं जो अपनी सनक को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जाते हुए नजर आते हैं। पेश हैं ऐसे ही कुछ लोगों के किस्से-

खून की प्यासी रानी
हंगरी की एलिजाबेथ बथोरी का जन्म 7 अगस्त, 1560 ई. को हुआ। वह अत्यंत रूपवती थी और वह चाहती थी कि उसका रूप हमेशा वैसा ही बना रहे। अपने रूप को बरकरार रखने के लिए कुछ तांत्रिकों की बात मानकर पागलपन में उसने 600 से अधिक कुंवारी लड़कियों का रक्त पीया और उनके रक्त से स्नान भी किया। वह अत्यंत क्रूर और निर्दयी किस्म की औरत थी। उसकी शादी एक अधिकारी से हुई थी। पर धीरे-धीरे उसने अपनी पहुंच शाही दरबार तक बना ली थी। उसने दरबार में प्राप्त अपनी शक्तियों का खूब दुरुपयोग किया। लेकिन एक दिन उसके खून पीने का रहस्य खुल गया। उसको कठोर दंड दिया गया। उसे कैद कर रखा गया। और वहीं एक दिन 21 अगस्त, 1614 को उसकी मौत हो गयी।
आराम में खलल हराम
ऐसा ही एक सनकी मिस्र का एक धनकुबेर था। जिसका नाम अमीर बेसरी था। 1233 ई। में पैदा हुआ बेसरी अपनी अथाह और अपार धनदौलत को लेकन परेशान रहता था। कि आखिर वह कैसे इसका उपयोग कर पाएगा। उसने उसे खर्च करने का एक तरीका खोजा। तरीका यह था कि वह प्रतिदिन नए सोने एवं चांदी के प्याले से शराब की चुस्की लेता था। एक दिन पुराने प्याले को नौकरों में वितरित कर दिया जाता था। उसे मिस्र का बादशाह बनने का भी आमंत्रण मिला, परंतु उसने यह आमंत्रण ठुकरा दिया। उसने यह आमंत्रण इसलिए ठुकराया कि यह उसकी आरामतलब जिंदगी में खलल डालेगा। 60 साल की उम्र में 1293 ई। में मर गया।

क्रूरता में आनंद
५०० ईस्वी में हूण वंश के भारतीय राजा मिहिर की सनक भी अजीब थी। वह अपने पिता से भी अधिक नृशंस और क्रूरता के कार्यों से प्रसन्न होता था। दिल दहलाने वाली घटना को अंजाम देने के लिए वह हाथियों को पकड़कर पहाड़ों पर ले जाता था और पहाड़ की चोटियों से उन हाथियों को धक्का मारकर गिरा देता था। गिरते समय जब हाथियों की भयंकर चिंघाड़ निकलती तो वह अति प्रसन्न होता था। जब वह किसी राजा को हराकर उसके राज्य को जीत लेता था तो वह इस भयानक सनकी खेल को अवश्य अंजाम देता था।

पानी में बहाया खतों को
4 अगस्त, 1792 ई। को जन्मे वि यात अंग्रेज कवि शैली को विश्वयुद्ध की योजनाओं को अंजाम देने वालों से बहुत घृणा थी। वे उन्हें समझाने के लिए विस्तार से पत्र लिखते थे, परंतु उन्हें सही पते पर प्रेषित करने की बजाय इन्हें बोतल में बंद करके टे स नदी में यह सोच कर बहा देते थे कि ये पत्र स्वतज् ही किसी न किसी माध्यम से उन लोगों तक पहुंच जाएंगे। शेली ने ऐसा अनगिनत पत्रों के साथ किया। मात्र 30 वर्ष की छोटी आयु में महान शैली की मृत्यु हो गई।

वो भूलना
प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक एमिले जोला भी इसके अछूते नहीं रहे। उनका जन्म 2 अप्रेल, 1840 ई. को हुआ था। उनके लेख मुरदे में जान फूंकने वाले होते थे। परंतु उनकी एक अजीबोगरीब आदत थी। वे जब भी किसी गली से गुजरते थे तो वे बिजली के खंभों को गिनते जाते थे। गिनते समय यदि कहीं वे भूल जाते तो वापस गली में आकर खंभों को दोबारा गिनना शुरू कर देते थे। एक बार उन्हें एक सेमिनार के प्रमुख अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया, परंतु वे जब एक गली से गुजर रहे थे तो आदतन बिजली के खंभों को गिनना शुरू कर दिया। इस बीच किसी ने उन्हें जल्दी आने के लिए टोका तो वे गिनना भूल गए और दोबारा गिनना शुरू किया। दोबारा गिन ही रहे थे कि सेमिनार में जाने के लिए उन्हें कुछ लोग लेने आ गए। वे फिर से भूल गए और पुनज् गिनना शुरू किया। इस प्रकार पांचवी बार में पूरे खंभों को गिन लेने के बाद ही वे सेमिनार में गए। उनकी इस सनक का अंत 29 सिंतबर, 1902 को उनकी मृत्यु के साथ ही हुआ।

गीदड़ प्रेम
प्रतापगढ़ का राजा भी अजीब सनकी थी। एक दिन उसने युद्ध में गाडरवाड़ा के राजा को हरा दिया। हारे हुए राजा ने किसी तरह भागकर अपनी जान बचाई। पराजित राजा को गीदड़ सिद्ध करने के लिए उसने एक गीदड़ को गाडरवाड़ा का राजा बना दिया। गीदड़ को राजा की पोशाक पहनाकर राजसिंहासन पर बैठा दिया। राज्य के सारे अधिकार उस गीदड़ को प्राप्त थे। गीदड़ जब भी हुंआ हुंआ चिल्लाता था तो वहां के सभी सदस्य खडे़ होकर उसे स मान देते थे। इस प्रकार 12 वर्ष तक सियार राजा की खूब चली। उसके मरने के बाद ही इस सनक का अंत हुआ।
सिंहासन प्रेम
अफ्रीका के गायना का राजा न्यूबिस बहुत हबशी था और उसे सिंहासन से अति लगाव था। और वह लगाव तब सनक में बदल गया, जब वह अपने लिए रोज नया सिंहासन बनवाता था। यह सिंहासन लकçड़यों का होता था। इस कार्य को करने के लिए 100 श्रमिकों का एक समूह उसके यहां बराबर कार्यरत था। बताया जाता है कि उसके सिंहासन की इस सनक से एक विशाल जंगल पूरी तरह से कट गया था, परंतु जब तक वह जिंदा रहा, अपने लिए रोज सिंहासन बनवाता रहा और अपनी इस सनक के लिए जाना जाता रहा।

दिशा भ्रम
प्रसिद्ध लेखक मोपासां का 5 अगस्त, 1850 ई. को जन्म हुआ। उनको हमेशा दिशा भ्रम होने की आदत थी। मोपासां अपने कमरे में दाएं कोने में लिखने के अ यस्त थे। वे हमेशा दाएं कोने में बैठकर ही लिखते थे, परंतु लिखते वक्त उनको हमेशा दिशा भ्रम हो जाता था और वे कमरे के दाएं कोने से बाएं कोने में जा बैठते। जब वे लिखना समाप्त कर लेते थे और स्वयं को जब दाएं की जगह बाएं कोने में बैठे पाते तो परेशान हो जाते। उनका यह दिशाभ्रम लिखते समय ही हो जाया करता था। 6 जुलाई, 1893 को उनका देहान्त हो गया था।

Monday, April 6, 2009

अभी ना करना प्यार


अभी तुम छोटी, प्यारी, कोमल
अभी ना करना प्यार
अभी तुम्हारा मृदुल बदन है
बच्चों का सा अल्हड़ मन है
परियों से भी कोमल तन है
अभी ना करना प्यार।

अभी तुम नादान परी हो
यौवन की दहलीज खड़ी हो
अभी नहीं तुम चल पाओगी
बीच डगर में रह जाओगी
अभी ना करना प्यार

सपनों की आदी ये पलकें
धूप सदृश्य सा खिलता यौवन
कैसे सह पाओगी तपन कठिन
कहीं छूट न जाएं यार
अभी ना करना प्यार


अभी तुम बढ़ो, आसमान को छूने
उन्मुक्त होकर विचरण कर लो
क्यों बांध रही सीमाओं में अपने को
फिर नहीं कर पाओगी पार
अभी ना करना प्यार

अभी तुम खेलो, कूदो, खाओ
चट्टानों से तुम टकराओ
पढ़-लिखकर आगे बढ़ जाओ
जग में कुछ बनकर दिखलाओ

इन आंखों में जो सपने हैं
अभी जो तुम्हारे अपने हैं
सभी छोड़ देंगे तुम्हारा हाथ
फिर नहीं देगा कोई साथ

अभी तुम छोटी, प्यारी, कोमल
अभी ना करना प्यार....

Saturday, March 7, 2009

महिला दिवस है शक्ति दिवस

आसमान सा है जिसका
विस्तारचांद-सितारों का जो सजाए संसार
धरती जैसी है सहनशीलता जिसमें
है नारी हर जीवन का आधार
घर से दफ्तर चूल्हे से चंदा तक
पुरूष संग अब दौड़े यह नार
महिला दिवस है शक्ति दिवस भी
पुरूष नजरिया में हो और सुधार
सृष्टि के आरंभ से नारी अनंत गुणों की खान रही है। वह दया करुणा, ममता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है और समय पड़ने पर प्रचंड चंडी का भी रूप धारण कर सकती है। नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है। किंतु बदलते समय के साथ यह महसूस किया जाने लगा कि काम, पैसा और मेहनत का मूल्य मानवीय विशेषताओं से आगे निकलने लगा है और महिलाएं इस दौड़ में पीछे रह गई हैं। उनके उत्थान और पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने के लिए विश्व ने कई प्रयास किए और किए जा रहे हैं। 1975 मे अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष का भारत में उद्घाटन करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा था, ऐसा कोई काम नहीं है जिसे महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नही कर सकती। पूर्व की अपेक्षा महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक हिस्सेदारी बढ़ी है। उसने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा कर न सिर्फ पुरुषों के वर्चस्व को तोड़ा है, बल्कि पुरुष प्रधान समाज का ध्यान भी अपनी ओर आकृष्ट किया है।आज विश्व में महिलाओं का सर्वाधिक शोषण सामाजिक स्तर पर है। परंपराओं के साथ महिला को जोड़ दिया जाता है। परंपराएं सामाजिक सुख और सुविधा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं किंतु इनको बनाए रखने में यदि महिलाओं का सुख और भविष्य दांव पर लगने लगे तो इन्हें बदलने में संकोच नहीं होना चाहिए। इस विषय में विश्व का जनमत धीरे-धीरे मुखर होने लगा है। लेकिन यह बात भी सही है कि इस आर्थिक दुनिया में आर्थिक आजादी के बिना पुरुषों के वर्चस्व को समाप्त नहीं किया

Monday, March 2, 2009

भरतपुर लुट गयो...!


एक लोकोक्ति मुझे काफी दिनों से परेशान किए जा रही थी। और अंदर ही अंदर कचोटती थी। जब भी कोई मुझे उस लोकोक्ति को सुनाता तो मुझे एक अजीब सी फीलिंग होती और में सोचता कि आखिरकार यह लोकोक्ति प्रचलन में आई कैसे? उसको लेकर एक गाना भी बन चुका है। जो काफी लोकप्रिय हो गया था। इस कहावत या लोकोक्ति से मेरी कुछ भावनाएं जुड़ी हुई हैं इसलिए मैं इसकी खोज में जुट गया। और आखिरकर एक दिन कामयाब भी हो गया। आपने `भरतपुर लुट गयो´ वाली लोकोक्ति तो सुनी होगी मैं उसी की बात कर रहा हूं-

इसका सूत्र मिला पं। सुंदरलाला की इतिहास पुस्तक `भारत में अंगरेजी राज´ में मिलता है। कहानी कुछ इस तरह है। भरतपुर को हथियाने के लिए जब अंग्रेजों ने हमला किया तो उन्हें मुंह की खानी पड़ी। और वो भरतपुर का बाल भी बांका नहीं कर सके। अपनी इस विफलता से दुखी होकर जनरल लेक ने गर्वनर जनरल माçर्कवस वेल्जली को इस प्रकार लिखा- `मुझे यह लिखते हुए दुख है कि खाई इतनी चौड़ी और गहरी निकली कि उसे पार करने की जितनी कोशिश की गईं, सब बेकार गईं... हम पर इतनी देर तक जोर से और ठीक निशानों के साथ फसील की तोपो के गोले बरसते रहे कि हमारा बहुत अधिक नुकसान हुआ।´ फिर भी अंग्रेजों ने पूरी तैयारी के साथ 21 जनवरी, 1805 को दूसरे हमले में भरतपुर की घेराबंदी कर बारह दिन तक गोलाबारी की, लेकिन पहले हमले की तरह इस बार भी वे भरतपुर का कुछ न बिगाड़ सके। अंतत: उन्हें पीछे हटना पड़ा। फिर 20 फरवरी को तीसरा हमला किया गया। वह भी बेकार गया। इस तरह तीन-तीन बार के जबरदस्त हमलों को झेलकर भरतपुर की फसीलों ने अंग्रेजों के घमंड को इस बुरी तरह चकना-चूर कर दिया कि अंग्रेजों ने बीस साल तक भरतपुर की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा। लेकिन भरतपुर उनके दिल में का¡टे की तरह चुभता रहा। तभी तो इन तीन-तीन हमलों की हार के नौ साल बाद भी लॉर्ड मेटकॉफ को लिखना पड़ा कि, `...हमारी सैनिक कीर्ति का अधिकतर भाग भरतपुर में दफन हो गया।´ इसके बाद जाट इतिहास और राजा सूरजमल को पढ़ने पर पूरी तस्वीर उभरकर सामने आई कि भरतपुर के अभेद्य दुर्ग और जाटों की दुर्दम्य जुझारू शक्ति उस कालखंड में अपने सर्वोच्च पर थी और उन्होंने अंग्रेजों को बुरी तरह आतंकित किया और सताया था उसी का बदला अंग्रेजों ने भरतपुर को बुरी तरह लूटकर लिया। कुछ ऐसा भी लिखा हुआ कि भरतपुर की आबादी को बेदर्दी से मारा-काटा गया। जिनके पास कुछ भी नहीं था उन लोगों के बाल तक उखाड़ लिए गए। उन्होंने भरतपुर की जनता को कंगाल बना दिया और किसी के पास कुछ नहीं छोड़ा। तभी से `भरतपुर का लुटना´ लोकोक्ति बन गया।

चाहे जो भी कुछ हुआ हो लेकिन मैं इस बात से सहमत हूं कि भरतपुर ही वह वीर राज्य था जिसने अंगे्रजों के सामने हार नहीं मानी थी। भरतपुर का किला अजेय था और अजेय है। भरतपुर ने अपनी वीरता के दम पर अंग्रेजों को सबसे ’यादा प्रताडि़या था। उसने अन्य राज्यों की तरह अंगे्रजों की गुलामी स्वीकार नहीं की। वह एक शेर की भांति हमेशा दहाड़ता रहा। लेकिन हकीकत में ना कभी भरतपुर लुटा है और न कभी लुटेगा।

Sunday, February 8, 2009

...दिल तो उछालिए!


14 फरवरी, लव, प्यार और दिल वालों की दुनिया का एक दिन। दो प्रेमियों के मिलन का एक दिन। एक ऐसा दिन जिसका दिलवालों को बेसब्री से इंतजार रहता है। वैसे प्यार करने का कोई दिन नहीं होता है। और ना ही प्यार करने का कोई समय है। वैसे प्यार करने वालों ने ऐसा कहा है कि - प्यार किया नहीं जाता हो जाता है। फिर ये प्यार जब चाहे हो सकता है इसके लिए कोई दिन निश्चित नहीं हो सकता। फिर भी दिलवालों की दुनिया ने इस प्यार को एक दिन में संकुचित कर दिया है और इसके लिए 14 फरवरी का दिन निश्चित किया है। इस दिन चारों तरफ का वातावरण प्रेममय हो जाता है। हवा में सरसराहट बढ़ जाती है। फूलों से हंसते रहने के लिए बोल दिया जाता है। कलियां से मुस्कराने को कह दिया जाता है। भौंरों से कह दिया जाता है कि कलियों पर मंडराएं लेकिन जरा तमीज से! तितलियों को आजादी है कि वे जिसके ऊपर चाहें उसके ऊपर मंडराएं। वे कहीं भी आ-जा सकती हैं। वैसे तो लैला-मजनूं इसकी तैयारियां कई दिनों पहले से करने लग जाते हैं। 14 फरवरी का दिन लगते ही शुरू होता है मोबाइल वेलेंटाइन डे। यानी प्रेमी प्रेमिकाओं के मोबाइलों की घंटियां बजने लग जाती हैं। और पहले विश करने की होड़ लग जाती है। दोपहर होते ही शुरू हो जाता है शिकवा शिकायत वेलेंटाइन डे। प्रेमिका अपनी प्रेमी से शिकायत करती है कि तुमने मुझे इतनी देर से विश किया जाओ मैं तुमसे बात नहीं करती। शाम होते-होते तो वेलेंटाइन डे का बुखार चरम सीमा पर चढ़ा होता है। और सारा देश क्लबों, मॉल्स, पार्टियों में थिरकने लगता है। एक तरफ जहां लोग वेलेंटाइन डे मनाने के लिये फुदक रहे हैं वहीं दूसरी तरफ संस्कृति के रक्षक वेलेंटाइन डे विरोध दिवस मना रहे हैं और वे लैला-मजनूं के बीच दीवार बन कर खडे़ हुए हैं। लेकिन लैला-मंजनू उस दिवार को फांद कर चुपके से कहीं दूर जाकर झाडि़यों में प्रेम क्रीड़ा रचा रहे हैं। और अपनी संस्कृति को आगे बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं। मुझे तो यह वेलेंटाइन डे नजर नहीं आता। मेरी नजरों में तो यह उपहार दिवस है। बाजार दिवस है। मार्केट डे है। अगर आपने अपने प्रेमी को महंगा तोहफा नहीं दिया तो वह आपके दिल को लौटा कर किसी और का दिल खरीद लेगी। हम अपना प्रेम प्रदशिüत करने के लिए कार्डों मोहताज हो गए हैं! कार्ड नहीं तो प्रेम नहीं। ग्रीटिंग कार्ड वह सुरंग हो गयी है जिससे होकर ही दिल के किले पर फतह हासिल हो सकती है। इधर भी वेलेंटाइन डे मनाया जा रहा है। अशिक्षा, बेरोजगारी के गले मिलकर उसे मुबारकबाद दे रही है, धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिकता के गले मिल रही है, घपले-घोटाले, गोपनीयता से फूल की तरह खिलकर बाहर निकल रहे हैं। आतंकवाद देश से लैला-मजनूं की तरह प्यार कर रहा है। व्यक्तिगत स्वार्थ ने ईष्र्या पर डोरे डालने शुरू कर दिए हैं, प्रशासनिक निरंकुशता ने सूचना के अधिकार को दबोचकर नीचे पटक दिया और बेईमानी, भाई-भतीजावाद की आंखों में आंखें डाले गाना गा रही है -हम बने तुम बने एक दूजे के लिये। सब वेलेंटाइन डे मना रहे है। आपस में प्रेम प्रदर्शन कर रहे हैं। पूरा देश वेलेंटाइन-बुखार में जकड़ा है।
आप काहे गुमसुम बैठे हो। क्या आपको अब भी झिझक रहे हो रही है। चलिए वेलेंटाइन डे पर आप भी अपना दिल उछालिए, और गाना गाइए-
चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो, हम हैं तैयार चलो!

Wednesday, January 14, 2009

जय हो रहमान


ए आर रहमान यानी अल्लारक्खा रहमान। एक ऐसा भारतीय संगीतकार जिसका नाम इस समय सिर्फ भारतीय ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व के लोगों की जुबान पर चढ़ा हुआ है। एक ऐसा शख्स जो पूरी तरह संगीत को समर्पित है। जिसने न सिर्फ स्वयं बल्कि संपूर्ण भारतीय संगीत की बुलंदियों को और शिखर तक पहुंचाया है। फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर´ में अपनी करिश्माई आवाज का जादू बिखरते हुए रहमान ने वो उपलçब्ध हासिल की है जो अब तक कोई भी भारतीय संगीतकार नहीं कर सका है। रहमान ऐसे पहले भारतीय हैं जिन्हें किसी भी वर्ग में ग्लोडन ग्लोब अवार्ड मिला है। लॉस एंजिलिस के बेवर्ली हिल्टन में आयोजित गोल्डन ग्लोब अवार्ड फंक्शन में फिल्म को न सिर्फ संगीत बल्कि सर्वश्रेष्ठ फिल्म, निर्देशक और स्क्रीनप्ले अवार्ड भी मिले हैं। ए आर रहमान को यह अवार्ड फिल्म के गाने `जय हो´ के लिए मिला है। फिल्म स्लमडॉग के लिए उन्हें कुछ दिन पहले क्रिटिक्स अवार्ड भी मिल चुका है। यह फिल्म पूरी तरह मुंबई की पृष्ठभूमि पर आधारित है। यह पुरस्कार ऑस्कर के बाद हॉलीवुड का सबसे बड़ा दूसरा पुरस्कार है। ए आर रहमान द्वारा रचा यह इतिहास उनका पूरी तरह संगीत को समर्पित होने का परिणाम है। अवार्ड की घोषणा के बाद उनके द्वारा यह अवार्ड देश के नाम करने से उनका भारतीयता में डूब जाने या राष्ट्रीयता से ओत प्रोत होने का साफ संकेत है। उन्हांेने जो दुनिया के नक्शे पर भारत को गौरान्वित किया है उसके लिए देश उन्हें कहीं कहेगा- `जय हो रहमान।´

Friday, January 9, 2009

देख उसे मेरा दिल....



याद है वो जब हमें मिली थी

फूल जैसी वो खिली थी

होश मेरे उड़ गए जब

उससे मेरी नजर मिली थी।

उसे देख में बल्लियों उछला

उसे पाने को जी मचला।

चांदनी सा चेहरा उसका

पता नहीं है नाम।

आंखें में मस्ती भरी थी,

होंठों पर हंसी भरी थी।

तन कोमल, मन चंचल उसका

उमर थी अठरा साल।

जीवन में वो रस भरी है

सादगी की वो परी है

साथ निभाने को तैयार

हमको उससे प्यार।

उसने मेरे दिल को जीता

उसका दिल है साफ

जब से वह मन मंदिर में

आईवह तो है मेरी परछाई

मेरे सुख दुख बांटा करती

जैसी छाया करती।

सुहृदय और शीतल मन है

सेवा में तत्पर वह तन है

देख दुखी मन वह मेरा

मुझ पर देती जान


चांदनी का चेहरा उसका

पता नहीं है नाम।